
Rooh Afza History: बीते कुछ सालों में मंदिर-मस्जिद के नुस्खे राजनीति में खूब असर दिखा रहे हैं. लिहाज़ा जिसको देखो वही एक बयान देकर नेशनल हेडलाइन बन जाता है। अब व्यापार में भी इन्हें आजमाया जा रहा है. बाबा रामदेव ने एक बयान में रूह आफजा पीने वालों को सचेत किया है. अब जब रूह अफ़ज़ा बीच बहस में है , तो उसका इतिहास भी खंगाला जा रहा. वो हकीम हफीज़ अब्दुल मजीद याद किए जा रहे हैं , जिन्होंने 1907 की गर्मी में डिहाइड्रेशन से जूझते अपने मरीजों के लिए फल, जड़ी-बूटियों, गुलाब, केवड़े और खसखस के मेल से एक गाढ़ा लाल सिरप तैयार किया. जो आगे चलकर तमाम घरों में मेहमाननवाज़ी का सबसे मीठा माध्यम बन गया।
इस पेय को लोकप्रियता की बुलंदियों पर पहुंचाने वाले हाफ़िज़ पद्मभूषण हकीम अब्दुल हमीद की खासतौर पर चर्चा हो रही है, जिनका नाम यूनानी चिकित्सा प्रणाली की पढ़ाई और रिसर्च के साथ ही शिक्षा के प्रसार और समाज कल्याण से जुड़ी अनेक संस्थाओं के साथ जुड़ा हुआ है. तो चलिए हम आपको रूह अफ़ज़ा(Rooh Afza History) और उसे तमाम आबादी की पसंद बनाने वाले हकीम अब्दुल हमीद की कोशिशों के किस्से बताते हैं।
मरीजों की एक दवा जो बन गई शरबत
1906 में दिल्ली के लाल कुआं बाजार में हकीम हफीज अब्दुल मजीद ने हमदर्द नाम से दवाखाना खोला था. गर्मी से बेहाल मरीज शरीर में पानी की कमी के चलते सुस्ती-कमजोरी की शिकायत लेकर पहुंचते थे. यूनानी पद्धति से इलाज करने वाले हकीम ने ऐसे नुस्खे पर काम करना शुरू किया जो शरीर को ठंडक और पोषण दोनों दे. हकीम को जल्द ही कामयाबी मिली. फल जड़ी-बूटियों, गुलाब, केवड़ा और खसखस जैसी चीजों को मिलाकर तैयार सिरप उनके मरीजों के शरीर और मन दोनों को खूब भाया. हकीम मजीद का भी हौसला बढ़ा. उन्होंने इसे रूह अफ़ज़ा नाम दिया. रूह यानि आत्मा और अफ़ज़ा मतलब ताजगी देने वाला. 1907 में यह दवा थी. धीरे-धीरे यह शरबत बन गर्मी के मौसम में तमाम घर और परिवारों की की जरूरत बन गई.
1922 में हकीम अब्दुल मजीद का निधन हुआ. लेकिन उस वक्त तक उनका डेढ़ दशक पहले शुरू हुआ छोटा सा हमदर्द दवाखाना रूह अफ़ज़ा की बदौलत काफी विस्तार हासिल कर चुका था. 1910 में रूह अफजा को बोतल में मार्केटिंग के लिए बंबई में रंग-बिरंगा लेबल तैयार कराया गया.दिलचस्प है कि रूह अफ़ज़ा ने अपने लंबे सफ़र में अपने स्वाद के साथ ही इस लेबल को भी बरकार रखा है. 1908 में हकीम अब्दुल हमीद का जन्म हुआ. पिता अब्दुल मजीद के निधन के समय उम्र सिर्फ 14 साल के थे. लेकिन कम उम्र में ही उन्होंने मां राबिया बेगम के साथ हमदर्द कंपनी की जिम्मेदारी संभाल ली. आगे उनके छोटे भाई मोहम्मद सईद भी कारोबार में साथ जुड़ गए.
1947 में देश के विभाजन के साथ हकीम अब्दुल हमीद का परिवार भी विभाजित हुआ. छोटे भाई मोहम्मद सईद ने पाकिस्तान चुना. बड़े भाई हकीम अब्दुल हमीद भारत में ही रहे. लेकिन परिवार के बिखराव ने हमदर्द और रूह अफ़ज़ा(Rooh Afza History) की तरक्की में कोई रुकावट नहीं पैदा की. अब्दुल हमीद भारत में इसके विस्तार में लगातार कामयाब रहे. दूसरी ओर मोहम्मद सईद ने पाकिस्तान में रूह अफ़ज़ा का उत्पादन शुरू वहां भी इसे लोकप्रिय बना दिया. 1971 में बांग्लादेश के निर्माण के बाद वहां भी रूह अफ़ज़ा का उत्पादन शुरू हो गया. फिलहाल रूह अफ़ज़ा की पहुंच चालीस देशों तक है.